सरयू नदी की उत्पत्ति
सृष्टि के आदि में जब विष्णु भगववान की नाभि से उत्पन्न कमल नाल बैठे हुए ब्रह्माजी ने सोचा कि बिना तप किये मैं सृष्टि कि रचना नहीं कर सकूंगा. तब पहले उन्होंने विष्णु भगवन का ध्यान किया. बड़ी आराधना पूजा के बाद विष्णु भगवन प्रकट हुए और ब्रह्माजी कि इस अपार निष्ठां एवं अपने प्रति मन में अगाध प्रेम देखकर गदगद हो गए. उनके नेत्रों में प्रेम उमड़ आया और लोचनों से जल बिंदु गिरने लगे. उन पवित्र प्रेमाश्रुओं को गिरते देखकर ब्रह्माजी ने उन्हें अपने कमण्डल में रोक लिया और उनको रखने के लिए मानसिक सरोवर का निर्माण जिसका स्थूल रूप “मानस सरोवर” हुआ. उसी में जल को संचित कर दिया.
इस प्रकार हरि के वाजमदु को मानस सरोवर में रखे हुए सुदीर्घकाल में बीत गए. उनके पश्चात् अयोध्या में वैवस्वत मनु नामक राजा हुए जिसके पुत्र इक्ष्वाकु थे. नगर में कोई नदी ना होने के कारण राजा इक्ष्वाकु अपने गुरु वशिष्ठ से अयोध्या में एक नदी लाने कि प्रार्थना कि. वशिष्ठ जी अपने पिता ब्रह्मा के पास गए और वहां जाकर तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे सरयू को लाने कि आज्ञा प्राप्त कि.
सरयू में स्नान करे का पुण्य
ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को श्रीसरयू जी मानस सरोवर से निकली और भारत कि इस पवित्रम भूमि पर अवतरित हुयी. इस अयोध्या को तीन औ (पक्षिम, उत्तर और पूर्व) से घेरे हुए हैं. श्रीसरयू जी के अनेकों नाम हैं. भगवान् के नेत्र से उत्पन्न होने के कारण त्रजा, चिदानंदवारिणी होने से ब्रह्मनन्द्द्रवः मानस सरोवर में रहने और उससे निर्गत होने से बनास नंदिनी और वशिष्ठ के द्वारा लाये जाने के कारण उसका नाम वशिष्ठजी है.
सरय्वान सर्व तीर्थानि निवसति च सर्वदा ।
छल रूपेण ब्रह्मैव सरयू मोक्षदा सदा ॥
अर्थात श्रीसरयूजी मोक्ष देने वाली साक्षात् जलरूपी ब्रह्मा है और संसार के सभी तीर्थों को सदा सरयू में निवास रहता है. सरयू में स्नान करने से सभी तीर्थों का पुण्य फल प्राप्त होता है. प्राचीन ग्रंथों में लिखा है-
मनवरणतक सहत्रैस्तु कशी वासने यत्फलम।
तत्फलं सभवाप्नोति सरयू दर्शने कृते॥
जो फल पुण्य एक हज़ार मन्वन्तर तक काशीवास करने से मिलता है वही फल सरयू का दर्शन मात्र से प्राप्त होता है.
पष्टि वर्ष सहस्राणि गङ्गा स्नान न यत्फलं।
तत्फलं समवाप्नोति सरयू दर्शने कृते॥
साठ हज़ार वर्ष तक गङ्गा स्नान से जो फल मिलता है उतना ही फल सरयूजी का दर्शन करने से प्राप्त होता है.